माना जाता है कि भगवान शिव के विष पीने के बाद उन्हें जो कष्ट और नकारात्मक ऊर्जा मिली, उसे दूर करने का काम रावण ने गंगाजल लाकर और उसे शिव लिंग पर अर्पित कर उन्हें ठीक करने के लिए किया था. ये पहली कांवड़ यात्रा थी. ये लंबे समय से भारत में जारी है.
16 जुलाई को शिवरात्रि के साथ आमतौर पर सावन महीने में कांवड़ यात्रा खत्म हो चुकी है. शिवालयों में गंगा जल अर्पित कर कांवड़िए घर लौट चुके हैं लेकिन क्या आपको मालूम है कि कांवड़ यात्रा क्या होती है, क्यों होती है और रावण को क्यों पहला कांवड़िया कहा जाता है.
मोटे तौर पर कांवड़ यात्रा श्रावण मास यानि सावन में होती है, जो ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार जुलाई का वो समय होता है जबकि मानसून अपनी बारिश से पूरे देश को भीगा रहा होता है. इसकी शुरुआत श्रावण मास की शुरुआत से होती है. ये 13 दिनों तक यानि श्रावण की त्रयोदशी तक चलती है. इसका संबंध गंगा के पवित्र जल और भगवान शिव से है.
सावन के महीने में कांवड़ यात्रा के लिए श्रृद्धालु उत्तराखंड के हरिद्वार, गोमुख और गंगोत्री पहुंचते हैं. वहां से पवित्र गंगाजल लेकर अपने निवास स्थानों के पास के प्रसिद्ध शिव मंदिरों में लाए गए गंगाजल से चतुर्दशी के दिन उनका जलाभिषेक करते हैं. दरअसल कांवड़ यात्रा के जरिए दुनिया की हर रचना के लिए जल का महत्व और सृष्टि को रचने वाले शिव के प्रति श्रृद्धा जाहिर की जाती है. उनकी आराधना की जाती है. यानि जल और शिव दोनों की आराधना.
कौन था पहला कांवड़िया
अगर प्राचीन ग्रंथों, इतिहास की मानें तो कहा जाता है कि पहला कांवड़िया रावण था. वेद कहते हैं कि कांवड़ की परंपरा समुद्र मंथन के समय ही पड़ गई. तब जब मंथन में विष निकला तो संसार इससे त्राहि-त्राहि करने लगा. तब भगवान शिव ने इसे अपने गले में रख लिया. इससे शिव के अंदर जो नकारात्मक उर्जा ने जगह बनाई, उसको दूर करने का काम रावण ने किया. रावण ने तप किया. फिर वह पैदल गंगाजल लेने गया. इसे लेकर लौटने पर गंगा के जल से पुरा महादेव मंदिर में भगवान शिव का अभिषेक किया, जिससे शिव इस उर्जा से मुक्त हो गए.
अंग्रेजों ने भी किया इस यात्रा का जिक्र
वैसे अंग्रेजों ने 19वीं सदी की शुरुआत से भारत में कांवड़ यात्रा का जिक्र अपनी किताबों और लेखों में किया. कई पुराने चित्रों में भी ये दिखाया गया है.
लेकिन कांवड़ यात्रा 1960 के दशक तक बहुत तामझाम से नहीं होती थी. कुछ साधु और श्रृद्धालुओं के साथ धनी मारवाड़ी सेठ नंगे पैर चलकर हरिद्वार या बिहार में सुल्तानगंज तक जाते थे और वहां से गंगाजल लेकर लौटते थे, जिससे शिव का अभिषेक किया जाता था. 80 के दशक के बाद ये बड़े धार्मिक आयोजन में बदलने लगा. अब तो ये काफी बड़ा आयोजन हो चुका है.
तकरीबन कितने कांवड़िए हर साल यात्रा करते हैं
आंकड़े कहते हैं कि वर्ष 2010 और इसके बाद हर साल करीब 1.2 करोड़ कांवड़िए पवित्र गंगाजल लेने हरिद्वार आते हैं.फिर इसे अपने माफिक शिवालयों में लेकर जाते हैं. वहां इस जल से भगवान शिव को पूजा – अर्चना के बीच नहलाते हैं. आमतौर पर कांवड़िए उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली, ओडिसा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और झारखंड से अब हरिद्वार पहुंचने लगे हैं. कोरोना काल में वर्ष 2020 और 2021 में ये यात्रा प्रभावित रही.
इस यात्रा को कांवड़ यात्रा क्यों कहा जाता है
क्योंकि इसमें आने वाले श्रृद्धालु चूंकि बांस की लकड़ी पर दोनों ओर टिकी हुई टोकरियों के साथ पहुंचते हैं. इन्हीं टोकरियों में गंगाजल लेकर लौटते हैं. इस कांवड़ को लगातार यात्रा के दौरान अपने कंधे पर रखकर यात्रा करते हैं, इसलिए इसे कांवड़ यात्रा और यात्रियों को कांवड़िए कहा जाता है. पहले तो लोग नंगे पैर या पैदल ही कांवड़ यात्रा करते थे. अब नए जमाने के हिसाब से बाइक, ट्रक और दूसरे साधनों का भी इस्तेमाल होने लगा है.
क्या कांवड़ यात्रा का संबंध उत्तराखंड से आने वाले गंगाजल से ही है
आमतौर पर परंपरा तो यही रही है लेकिन आमतौर पर बिहार, झारखंड और बंगाल या उसके करीब के लोग सुल्तानगंज जाकर गंगाजल लेते हैं. कांवड़ यात्रा करके झारखंड में देवघर के वैद्यनाथ मंदिर या फिर बंगाल के तारकनाथ मंदिर के शिवालयों में जाते हैं. एक मिनी कांवड़ यात्रा अब इलाहाबाद और बनारस के बीच भी होने लगी है.
कांवड़ यात्रा के बाद ज्यादातर कांवड़िए किन शिवालयों में जाते हैं
माना तो ये जाता है कि श्रावण की चतुर्दशी के दिन किसी भी शिवालय पर जल चढ़ाना फलदायक है लेकिन आमतौर पर कांवड़िए मेरठ के औघड़नाथ, पुरा महादेव, वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर, झारखंड के वैद्यनाथ मंदिर और बंगाल के तारकनाथ मंदिर में पहुंचना ज्यादा पसंद करते हैं. कुछ अपने गृहनगर या निवास के करीब के शिवालयों में भी जाते हैं.